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26 January 2014

जन तंत्र

जन 

कहीं खोया खोया सा
मारा मारा सा
भटकता रहता है
रात दिन
मुकाम की तलाश में
इक उम्मीद के साथ
कि इन अँधेरों में
कहीं कोई रोशनी हो
परवाज़ दे सके
जो उसके सपनों को।

तंत्र 

काँटों का ताज लगाए
यूं तो बैठता  है
मखमली कुर्सी पर
सोता है
अशर्फ़ियों के गद्दों पर
रोता है
फिर भी
छटपटाता है
बार बार याद आते
आश्वासनों के
जाल से
बाहर निकलने को  
जिसे उसने
कभी खुद ही बुना था ।

जन-तंत्र 

तंत्र
परिणाम है
जन के जपे
मंत्रों की तरंगों का
और जन
स्रोत है
तंत्र की
स्वतन्त्रता
उछृंखलता का ....
ज़रूरी है
दोनों का अस्तित्व
संतुलन को
क्योंकि दोनों ही
पूरक हैं
मछ्ली
और जल की तरह।


गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ!


  ~यशवन्त यश©

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (26-01-2014) को "गणतन्त्र दिवस विशेष" (चर्चा मंच-1504) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    ६५वें गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. गणतंत्र दिवस कि हार्दिक शुभकामनायें!

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  3. बहुत ही गहन एवँ उत्कृष्ट प्रस्तुति यश जी ! गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !

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  4. बहुत बढ़िया..... आपको गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाई और शुभ कामनाएं......

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  5. जनतंत्र को अच्छी तरह परिभाषित किया है..शुभकामनायें !

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  6. बहुत बढिया...सुन्दर रचना..

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  7. पूरक हैं दों इक दूजे के अगर वो सब को सामान रूप से मिले .... पर आज तंत्र कुछ लोगों के हाथ की कठपुतली बन के रह गया है ...

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  8. jan, tantr---jantantr.... bahut khoob likha hai

    shubhkamnayen

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