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08 June 2014

उलझे ख्यालों की दुनिया

रोज़ भटकता हूँ
उलझे ख्यालों की
अनकही
अजीब सी दुनिया में
जिसके एक तरफ
घनी हरियाली है
और
दूसरी तरफ
वीरान बंजर
जिसके एक तरफ
बारिश की बूंदें
और सोंधी खुशबू है
और दूसरी तरफ
ऊपर से
बरसती आग 
फिर भी
यह पागल मन
मचलता है कह देने को
पल पल उभरता
हर जज़्बात
मगर मिल नहीं पाते शब्द
जुड़ नहीं पाते सिरे
क्योंकि
उलझे ख्यालों की यह दुनिया
देखने नहीं देती
कहीं और 
खुद की देहरी के पार । 

~यशवन्त यश©

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-06-2014) को "यह किसका प्रेम है बोलो" (चर्चा मंच-1638) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. बड़ी अजीब है ये ख्यालों की दुनिया भी .... सुन्दर रचना

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  3. उलझेे खयालो की ये दुनिया देखने नही देती कुछ अपनी दहलीज के पार। सही कहा।

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  4. उलझे ख्यालों की दुनिया के पार ही जाकर ही घटती है कविता..

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  5. ख्यालों की दुनिया उलझती ही है ..... बढ़िया रचना

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