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07 March 2015

जीवन के रंगमंच पर

जीवन के
इस रंगमंच पर
अपनी अपनी भूमिका
निभाते निभाते
अपने अपने पात्रों
चरित्रों को जीते जीते
हम
कभी सजाते हैं
दीवारों पर तस्वीरें
और कभी
खुद ही
कोई तस्वीर बन कर
कैद हो जाते हैं
अंधेरे कमरे की 
किसी दीवार पर
जहाँ की तन्हाई
कई मौके देती है
बीते दौर को
सोचने समझने
और
अगले पलों के
नये संवाद रचने के 
फिर भी
कभी कभी
हम नहीं आ पाते बाहर
अपनी तस्वीर को घेरे
शीशे के उस फ्रेम से
जिसकी सीमाएं
लगने लगती हैं
अपनी सी
और एक समय बाद
जब भूकंप की आहट से
दरकती है
दीवार की
कमजोर नींव
हम आ पहुँचते हैं
अर्श से फर्श पर .....
और शायद
यही होता है अंत
जीवन के रंगमंच पर
हमारी भूमिका का।

~यशवन्त यश©

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