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28 June 2015

साहित्य स्पेशल चलाएं--सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार

कादमी से फोन आया कि उनका काव्यपाठ है? आप आ रहे हैं न? उस आवाज में इस कदर अपनापन था कि जबाव दिए बिना न रह सका!
कहा: 'आदरणीय! अगर आप आने-जाने का किराया और सीटिंग चार्ज का पेमेंट करें, तो सोचा जा सकता है। दिल्ली में आना-जाना खर्चीला है। कविता झेलने का चार्ज छोड़ भी दूं, तो आने-जाने और दो-तीन घंटे बैठने की फीस मिलाकर पांच हजार बनते हैं। इसमें बोर होने की फीस नहीं लगा रहा। इतना कंसेशन दे रहा हूं। अकादमी संवाद अचानक बंद हो गया। हमें अकादमी वाले से हमदर्दी महसूस हुई।
उसका काम 'श्रोता' जुटाना था। हमें क्या पड़ी थी ऐसा-वैसा कहने की। लेकिन फिर वह कहावत याद आई कि घोड़ा घास से यारी करेगा, तो खाएगा क्या? हमारे जैसा लेखक अकादमी से यारी करेगा, तो खाएगा क्या?
यों हमने उसे समझाने की कोशिश की थी कि भइए, यह बात आपसे नहीं, आपके जरिए आपकी अकादमी से कही जा रही है। हो सके तो अध्यक्ष महोदय को बताना। सचिव जी को बताना कि इधर एक दिल्ली वाला कह रहा था कि महंगाई के चलते श्रोता महंगे हो गए हैं। वे अब फ्री में नहीं मिलते। श्रोता चाहिए, तो कुछ पेमेंट करना होगा। हर लेखक मूलत: एक श्रोता होता है, और जो श्रोता होता है, अक्सर वह लेखक भी हो ही जाता है। इसलिए हमने साहित्य की 'सहज समाधि' वाला मार्ग सुझाया।
हमने कहा- अध्यक्ष जी से कहना कि हिंदी का एक दुष्ट लेखक अरज कर रहा था कि आप पहले अकादमी अध्यक्ष हैं, जो हिंदी वाले हैं। हिंदी वाला एक सुझाव दे रहा है कि हे अध्यक्ष जी, अकादमी और आईआईसी आदि की कृपा से कविता आईसीयू में है। उसे जीवित रखना है, तो कवि के साथ श्रोता का भी एक बजट बनाइए।
दिल्ली में श्रोताओं का यों भी अकाल है। वे फ्री में जब नेताओं को नहीं मिलते, दलों को नहीं मिलते, तो अकादमी को कैसे मिलेंगे? नेता और दल उनको एसी गाड़ी में लाते, ले जाते हैं। खिलाते और पिलाते हैं, सीटिंग चार्ज भी देते हैं।  लेकिन आप भेदभाव करते हैं। दिल्ली से बाहर के लेखकों के आने-जाने के लिए हवाई जहाज और टैक्सी का किराया देते हैं, लेकिन दिल्ली वालों को बिना किराये दिए बुलाते हैं। 
यह अन्याय क्यों? असली लेखक या श्रोता का कोई पता नहीं होता। लेखक को क्या पता कि उसकी दिल्ली कहां से शुरू है और कहां खत्म? इसे महसूस करके रघुवीर सहाय ने तो कहा था दिल्ली मेरा परदेस!  आप ही विचारें, गाजियाबाद, नोएडा और गुड़गांव या हमारा मयूर विहार कहां हैं? वे एक मानी में बेंगलुरु, कोलकाता, मुंबई व चेन्नई तक से दूर हैं। इन शहरों से चला लेखक अकादमी जल्दी और खुशी-खुशी पहुंचता है, जबकि गाजियाबाद, नोएडा और गुड़गांव से रो-रोकर पहुंचता है।
हे अध्यक्ष जी, साहित्य और अकादमी, दोनों का असल संकट श्रोता का है। साहित्य ने श्रोता को फ्री में उपलब्ध समझ लिया है। लेकिन इस महंगाई के जमाने में श्रोता फ्री में किसी को नहीं मिलते। एक चाय, दो बिस्कुट, एक समोसा में लेखक/ श्रोता को बुलाना उसका घोर अपमान है।
श्रोता के संकट से बचने का उपाय यही है कि आप एक 'साहित्य स्पेशल' चला दें, जो हर शाम दिल्ली के लेखकों/ श्रोताओं क ो 'पिक अप' कर लाए, और गोष्ठी के बाद दो हजार रुपये प्रति घंटे के हिसाब से सीटिंग चार्ज पे करके ससम्मान घर छोड़ आए।
सच कहूं, ऐसा करके आप इतिहास बना डालेंगे और अकादमी का उद्धार हो जाएगा।

साभार-'हिंदुस्तान'28/जून/2015 

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