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12 September 2015

हिंदी, बिंदी, चिंदी के आगे की तुक--उर्मिल कुमार थपलियाल (वरिष्ठ व्यंग्यकार एवं रंग कर्मी)

हते हैं कि जिस तरह जातिवाद होता है, उस तरह का जातिवाद साहित्य में नहीं होता। साहित्यकारों में हो सकता है। साहित्य में दलित अब भी ढंग से परिभाषित नहीं हो पाए हैं। इसलिए कभी कहीं न छपने वाले कवि इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। वैसे भी साहित्य में ब्राह्मण जन्म से नहीं होते, कर्म से होते हैं। मेरे कई मित्रों को मेरी कविताएं समझ में नहीं आतीं। मेरा यह गुण मुझे बुद्धिजीवियों और ऊंचे पाए के जटिल कवियों में शामिल करता है। मुझमें और मुक्तिबोध में अगर कोई फर्क नहीं है, तो मैं क्या कर सकता हूं? इन दिनों गीत, नवगीत व छंदों में लिखने वाले कवि भाजपाई लगने लग पड़े हैं। जब देखो, हिंदी-हिंदी करते रहते हैं। ऐसे ही बहुत को भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन में न्योता गया है। वे वहीं सरकारी पंगत में बैठे, न बुलाए गए अपने समकालीनों को ठेंगा दिखाकर खा-पी रहे हैं। वहां उनका एक अपना निजी विश्व है। लोकल लोग तो अपना सालाना हिंदी दिवस अगले सोमवार को ही मनाएंगे।

पिछले साल हिंदी दिवस पर मेरे एक हिंदी अध्यापक मित्र को गोष्ठी में बुलाया गया। उनमें कवि के दुर्गुण भी थे। शाम को मेरे घर आए। बोले- मित्र बोलो, कैसा लग रहा हूं। मैंने उनका मुंह सूंघा, गहरा भभका लगा। मैंने कहा- मित्र जाओ, अब तुम गोष्ठी में जाने लायक हो गए हो। उन्होंने कतई बुरा नहीं माना और रिक्शे में लदकर चल दिए। हमारी यूपी में कविता से ज्यादा रुचि पहलवानी में दिखती है। आज की कविता भी तो पाठकों के लिए एक कुश्ती है। हुंकार भरती हुई हर सभा और गोष्ठी में दुनिया को बदल डालने के प्रस्ताव रिन्यू होते रहते हैं। शायद किसी बड़े ने कहा था कि साहित्य, समाज के आगे जलती हुई मशाल है। ताजा सवाल यह है कि आज के मशालची हैं कौन-कौन। किस तुक्कड़ कवि में इतना दम है कि वह हिंदी, सिंधी, बिंदी और फिर चिंदी-चिंदी के आगे का तुक भिड़ा सके। मित्रो, अगर तुम हिंदी नहीं जानते, तो अपनी अंग्रेजी में भी अव्यक्त रहोगे। अपनी भाषा पहचानो, वरना एक दिन वह भी तुम्हें नहीं  पहचान पाएगी।
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साभार-हिंदुस्तान-12/09/2015 

1 comment:

  1. बहुत ही उम्दा भावाभिव्यक्ति....
    आभार!
    इसी प्रकार अपने अमूल्य विचारोँ से अवगत कराते रहेँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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